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Thursday, March 5, 2015

Manhood

Sometimes man’s ego becomes so big that one doesn’t care about other’s feeling leaving other nothing but to compromise. Read Hindi poem on ego.
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Hindi Poem – Manhood

सिर्फ चार कोने …..चार दीवारें ,
और एक फर्श ….
फर्श पर बैठी मैं कहीं …….”शून्य” को खोज रही ,
अपनी नियति को …..मन ही मन ….कहीं कोस रही ।

कि जब भी मैंने …..कुछ कहने को ……अपना मुँह खोला ,
मैं धुत्कार दी जाती हूँ …..
किसी के अहम् के  ……ठेस की खातिर ,
बेजुबानी की जिंदगी में ……..धकेल दी जाती हूँ ।

क्यूँ उनका “Manhood” ……
हर बार तूल पकड़ता है ,
अपने पुरुषार्थ को ……मर्दानगी समझ,
मुझसे रोज़ झगड़ता है ।

धीरे-धीरे मेरी हँसी ……..मेरे चेहरे पर ,
फिर से लकीर बनाती है ,
थोड़ी देर पहले …….जो हँसी के भाव थे ,
अब उन भावों को …….कहीं दफन कर आती है ।

दो आत्मायों में से एक को ……..इतनी धीमी गति से ,
क्यूँ समाज चलाता है ?
जब सोच,समझ और बुद्धि ……
दोनों में …..एक सी बनाता है ।

ये “Manhood” हर बार उन्हें ,
मेरे शब्दों में ……तिरस्कृत करता है ,
मैं “हाँ ” भी कहूँ ……तो भी उन्हें ,
हर “हाँ ” में ……तीर चुभता है ।

अब मैं ….. अपनी जुबां को ,
बहुत सोच कर गति में लाती हूँ ,
उनका “Manhood” …..कहीं ये न समझे ,
कि इस बार मैं उन्हें ……अपनी “शिक्षा” से जलाती हूँ ।

मेरी “शिक्षा” ने ….मुझे यही सिखाया ,
कि लड़ो “हालातों” से ……मरते दम तक ,
अगर कोई “ऊँचा”……..खुद को समझे ,
तो ताज़ पहनायो उसे ………उसके “पुरुषार्थ” का हँसकर ।

हर बार मैं उनके गुस्से पर ….
अपनी “हृदयगति” को समझाती हूँ ,
कि मत बढ़ा कर …..इतना तेज़ तू ,
जब उनके व्यवहार से …….”अति” हो झुंझलाती हूँ ।

आज फिर बैठ ….उसी फर्श पर ,
मैं उसी “शून्य” को तक रही ,
जहाँ नियति कहती है …….बेजुबान बन ,
और उनकी “मर्दानगी” …….कहीं दमक रही ।

किसी “जीव” को जब जुबान दे ,
कोई बेजुबान बनाता है ,
तब अपने मन के भावों को “कागज़” पर ,
वो इस तरह से लाता है ।

लोग पूछते हैं अक्सर मुझसे ,
“लेखक” क्यूँ बन गए तुम ?
इस बिन पैसे के “Profession” में ,
बोलो क्यूँ धँस गए तुम ?

मैं कहती हूँ ….”लेखक” कोई बनता नहीं ,
उसे “हालात” बना देते हैं ,
जब “चाँद” अपने ज़ोरों पर हो ,
और लोग “चाँदनी” छुपा देते हैं ।

जब कहीं …किसी के …. दिल का कोई ,
तार टूट जाता है ,
तब उस तार को जोड़ने की खातिर ,
वो ‘लेखक” बन जाता है ।

हाँ मैं रोज़ ……फर्श पर बैठ ,
उस “शून्य” को …..यूँ ही तकती जाती हूँ ,
कभी अपने …..कभी उनके …….वैचारिक मतभेदों को ,
“लेखक” बन कर …….”कागज़” पर जुबां हिलाती हूँ ॥

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