This poem is about a woman who is spending her night with Her lover
and He forces her to take out her clothes for fun and pleasure.But being
a shy person and bounded with the society limits….
वो चीख रही थी रातों में ….
उन मद भरी बातों में …..
मैं कपड़े नहीं उतारूँगी ….
हाँ ….कपड़े नहीं उतारूँगी ।
ना जाने क्या थी वो माया ,
जिसके डर का था वहाँ साया ,
मेरा इश्क था कुर्बान उसकी अदायों पर ,
बस यही सोच मैंने ….उसकी चाहत को था पाया ।
“वो” क्यूँ इतना घबरा रही थी ?
अपने चेहरे को हाथों से छिपा रही थी ,
उन काँपते हुए हाथों से …..
मुझे फिर भी लुभा रही थी ।
उन रातों का एहसास ….
हमें और करीब लाता था ,
बस उस एहसास के अधूरेपन से ,
सारे बादल छटा जाता था ।
हाँ …मैं पागल उस वक़्त ….
इस कदर हो चुका था ,
कि Reality को Fantasy की ….
खुशबू से भिगो चुका था ।
वो बढ़ती हुई बेताबी …..
वो बढ़ती हुई बेचैनी …
कहती जाती थी उससे …..
कुछ और तुम उतारो ……हाँ …..और तुम उतारो ।
बहुत मुश्किल था वो मिलन ……
जिसमे मेरा दिल इतना जवान था ,
बहुत मुश्किल था वो मिलन …….
जिसमे उसका दिल …एक पत्थर का भगवान था ।
वो रोक रही थी खुद को …
ये सोच …कि वो नहीं है एक हवस ,
वो रोक रही थी खुद को …..
ये सोच …कि हर पल उसके लिए है एक बरस ।
हाँ …..मैंने अपने दिल के ….
अरमानो को बुझाया ,
हाँ ……मैंने उसकी तड़प में भी ,
अपना दिल बहलाया ।
बस यही था एक फर्क …..
हम दोनों में शायद ,
कि जितना उसने सोचा …..
मैं उसका आधा भी ……ना सोच पाया ।
उसने नहीं उतारे कपड़े …..
मेरी बेताबी के बाद भी ,
उसने तोड़ दिए मेरे सपने …..
मेरे कहने के बाद भी ।
उसने जीत लिया फिर से …..
अपने मन के समुन्दर को ,
मैं हार गया देख …..
अपनी चाहतों भरे मंज़र को ।
पर उसके शब्द मेरे कानों में ….
अब भी टकराते हैं ,
वो हर बात पर …..ना कहने की ,
सोच से गहराते हैं ।
मैं इतना भी बुरा नहीं …..
जो “वो” मेरी चाहत को ठुकरा देती है ,
मैं इतना भी बुरा नहीं …..
जो “वो” मुझे इतना सुना देती है ।
मगर शायद “वो” सही है …..
कहीं किसी एक कोण से ,
मगर शायद “वो” सही है …..
अपने इसी एक मौन से ।
तजुर्बा जिंदगी का सच में ….
बहुत विशाल होता है ,
किसी एक न एक को …..
अपनी समझ से जब भिगोता है ।
कभी-कभी हम जिद ….अपने “प्यार” से ,
ऐसी कर देते हैं ,
जिसमे कई ख्वाइशों के ……
तारे टूटे होते हैं ।
मैंने कहा “उसे”…….हौले से ,
जाओ …….तुम मेरी प्रीत हो ,
मत उतारो कपड़े ……
तुम ऐसे ही ठीक हो ।।
वो चीख रही थी रातों में ….
उन मद भरी बातों में …..
मैं कपड़े नहीं उतारूँगी ….
हाँ ….कपड़े नहीं उतारूँगी ।
ना जाने क्या थी वो माया ,
जिसके डर का था वहाँ साया ,
मेरा इश्क था कुर्बान उसकी अदायों पर ,
बस यही सोच मैंने ….उसकी चाहत को था पाया ।
“वो” क्यूँ इतना घबरा रही थी ?
अपने चेहरे को हाथों से छिपा रही थी ,
उन काँपते हुए हाथों से …..
मुझे फिर भी लुभा रही थी ।
उन रातों का एहसास ….
हमें और करीब लाता था ,
बस उस एहसास के अधूरेपन से ,
सारे बादल छटा जाता था ।
हाँ …मैं पागल उस वक़्त ….
इस कदर हो चुका था ,
कि Reality को Fantasy की ….
खुशबू से भिगो चुका था ।
वो बढ़ती हुई बेताबी …..
वो बढ़ती हुई बेचैनी …
कहती जाती थी उससे …..
कुछ और तुम उतारो ……हाँ …..और तुम उतारो ।
बहुत मुश्किल था वो मिलन ……
जिसमे मेरा दिल इतना जवान था ,
बहुत मुश्किल था वो मिलन …….
जिसमे उसका दिल …एक पत्थर का भगवान था ।
वो रोक रही थी खुद को …
ये सोच …कि वो नहीं है एक हवस ,
वो रोक रही थी खुद को …..
ये सोच …कि हर पल उसके लिए है एक बरस ।
हाँ …..मैंने अपने दिल के ….
अरमानो को बुझाया ,
हाँ ……मैंने उसकी तड़प में भी ,
अपना दिल बहलाया ।
बस यही था एक फर्क …..
हम दोनों में शायद ,
कि जितना उसने सोचा …..
मैं उसका आधा भी ……ना सोच पाया ।
उसने नहीं उतारे कपड़े …..
मेरी बेताबी के बाद भी ,
उसने तोड़ दिए मेरे सपने …..
मेरे कहने के बाद भी ।
उसने जीत लिया फिर से …..
अपने मन के समुन्दर को ,
मैं हार गया देख …..
अपनी चाहतों भरे मंज़र को ।
पर उसके शब्द मेरे कानों में ….
अब भी टकराते हैं ,
वो हर बात पर …..ना कहने की ,
सोच से गहराते हैं ।
मैं इतना भी बुरा नहीं …..
जो “वो” मेरी चाहत को ठुकरा देती है ,
मैं इतना भी बुरा नहीं …..
जो “वो” मुझे इतना सुना देती है ।
मगर शायद “वो” सही है …..
कहीं किसी एक कोण से ,
मगर शायद “वो” सही है …..
अपने इसी एक मौन से ।
तजुर्बा जिंदगी का सच में ….
बहुत विशाल होता है ,
किसी एक न एक को …..
अपनी समझ से जब भिगोता है ।
कभी-कभी हम जिद ….अपने “प्यार” से ,
ऐसी कर देते हैं ,
जिसमे कई ख्वाइशों के ……
तारे टूटे होते हैं ।
मैंने कहा “उसे”…….हौले से ,
जाओ …….तुम मेरी प्रीत हो ,
मत उतारो कपड़े ……
तुम ऐसे ही ठीक हो ।।
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