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Friday, February 27, 2015

Love of Mother- A Collection of Six Hindi Poems



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Love of Mother- Six Hindi Poems

1. कर्मों का लेखा-जोखा
आज मत रोको मुझे ….मुझे जी भर के रोने दो ,
इस जलती हुई लकड़ी को, धीरे-धीरे से ठंडा होने दो ।

बहुत प्यासा हूँ मैं …..बड़ी दूर से चलकर आया हूँ ,
इस लहरों भरे समुन्दर में, कश्ती खेमे की तलब लाया हूँ ।

जंगल में आग लगी ……मैं बेचैन सा “माँ ” को ढूंढ रहा ,
शायद उसके आँचल में छिपकर, मैं  मौत से लड़ने को झूझ रहा ।

“माँ” मेरा व्यथित ह्रदय …..तुझको यूँ पुकार रहा ,
क्यों इन आँसू की धारों में भी, तेरे हाथों का स्पर्श उभार रहा ।

बहुत भूल हुई मुझसे …….जो मैंने तेरा तिरस्कार किया ,
इस जनम में ही नहीं, हर जनम में भोगूँ ऐसा पाप किया ।

मैं अभागा इस धरती पर ……अपनी ब्याहता की जुबानी का मोहताज़ हुआ ,
तुझे उस घड़ी उस पल में अकेला छोड़ ,अपने नए आशियाँ को सजाने को अपराध हुआ ।

तूने सोचा तो होगा ……उस आखिरी घड़ी  में मुझको ,
क्योंकि हिचकी ही नहीं रुक रही थी ,कल रात से मुझको ।

मेरा कठोर ह्रदय ……क्यों भूल गया वो तेरी कोख ?
जहाँ उथल-पथल मचाने पर भी , हँसी  से तू हो जाती थी लोट-पोट ।

“माँ” मैं अभागा बड़ा …..अपनी हर सोच पे रोने आया हूँ ,
इस जलती हुई लकड़ी में ,अपने कर्मों का लेखा-जोखा पढने आया हूँ।।

2. मदर डे
आज दिन है बड़ा सुहाना ,
आज मनायेगा मदर डे ज़माना ।

अच्छा हुआ अंग्रेज़ों से कुछ तो हमको नयी चीज़ मिली ,
“माँ” को आदर देने की ये छोटी सी एक सीख मिली ।

364 दिन हमारे गुज़रे अपनी खुशियों के लिए ,
1 दिन रख छोड़ा हमने अपनी “माँ” से लिपटने के लिए ।

रूपये -पैसे का नहीं उसको कोई लोभ ,
“माँ” शब्द ही उसको लगा दे संतान का “प्रेमरोग” ।

“माँ “, “मदर “, “जननी ” ,”माता “,
कुछ भी कहो उसको सब भाता ।

नाम चले सदा पिता का …..जब भी हम ऊँचाई पर पहुंचे ,
बस कोख में उसके जनम लिया ……..इतना सा ही एक पल को सोचें ।

सबका क़र्ज़ उतार के जब हम …..जीवन से निवृत हुए ,
“माँ” का फ़र्ज़ भूल गए तब ….. अपनी मदिरा में चूर हुए ।

“माँ” तुझे उस मदिरा की सौगंध , तेरे लिए ये दिन बनाया है ….
“मदर डे” को नमन है मेरा , जिसने “माँ ” के लिए …. मेरे ह्रदय में प्रेम जगाया है ।

3. अठाराह के पार
सबके लंच में आलू-पूरी ,
मेरी अभिलाषा रही अधूरी,
“माँ ” मेरी मुझको छोड़ के चल दी ,
पर दिल से न मिटा सकी कोई दूरी ।

रोज़ विधालय के द्वार के आगे ,
मुझे देखने की आस में भागे ,
मैं कन्खिओं से उसे निहारूँ ,
“माँ” है मेरी ऐसा सोच कर पुकारूँ ।

कसूर उसका कहूँ या पिता का,
बस भाग्य ही जान सकता है सच उसका ,
दूसरी औरत की खातिर पिता ने उसे छोड़ा,
पर उसने मुझसे फिर भी न मुहँ मोड़ा ।

इतनी स्नेह्मई ,इतनी प्यारी….
पर बेचारी किस्मत की मारी,
मेरे लिए पल-पल तड़पती ,
मोटे-मोटे आंसू पलकों पर रखती ।

“माँ” तू फ़िक्र बिलकुल न करना ,
अठाराह का होने में चार वर्ष का बचा है …. बस छोटा सा सपना ,
अदालत से कंहूगा जाकर इस बार …..
कि  “माँ “मत छीनो किसी की, जब तक वो न हो अठाराह के पार ।।

4.  मेरी “सखा”
“माँ” का एक रूप ऐसा है ,
जिसे समझने में कई साल लगे ,
पर जब समझा उस रूप को मैंने ,
तब सब रिश्ते बेकार लगे ।

“माँ” एक ऐसी सखा बनी मेरी ,
जिसका न मैंने कभी ध्यान किया ,
पर  “माँ ” ने थामकर हाथ मेरा ,
मेरा इस जग में ऊँचा नाम किया ।

बचपन में जब सखियाँ मेरी ,
मुझसे लड़कर चली जाती थीं ,
तब “माँ” मेरी धीरे-धीरे से ,
मेरी सखी बनकर खेलने आती थी ।

दिन यौवन के जब चार हुए ,
“माँ” के शब्दों से बाग़-बाग़ हुए ,
एक “सखी: बनकर उसने ज्ञान दिया ,
समाज में जीने का स्वाभिमान दिया ।

ऐसी सखा,ऐसी मित्र ,ऐसी दोस्त ,
ढूँढने पर भी न मिलेगी कभी,
जो अपनी संतान की खातिर ,
रूप बदलने की छठा बिखेरती रही ।

समय रूपी पहिये के साथ ,
न जाने कितने मित्र जीवन में आये ,
पर अंतिम समय तक मित्र बनकर ,
‘माँ” एक तूने ही मेरे सपने सजाये ।

आज अकेली में खड़ी होकर ,
जब तेरा वो प्यारा रूप याद करती हूँ ,
तब आंसू की बहती धारों के साथ ,
“माँ” तुझे शत-शत प्रणाम करती हूँ।

5.  सिर्फ तुम्हारे लिए
आज भी धडकता है ये दिल ,
“माँ ” तेरी हर साँस  के साथ ,
कौन कहता है कि में अंश नहीं अब तेरा?
चलता हूँ अकेले में थाम कर तेरा हाथ ।

लोग हँसते हैं कि अब हो गया मेरा भी ब्याह ,
फिर क्यों ढूँढने लगा मैं भीड़ में अपनी “माँ” ,
लेकिन “माँ” तो आज भी “माँ ‘ रहेगी ,
कैसे रोक दूँ भला नए रिश्ते की खातिर अपनी जुबां ?

तेरा रिश्ता किसी सोच का मोहताज़ नहीं,
तू आगाज़ है कोई अंदाज़ नहीं ,
किस्से मोहब्बत के अक्सर सुने बहुत ,
पर मोहब्बत~ए ~माँ  के लिए कोई अलफ़ाज़ नहीं ।

माँ-बेटे के रिश्ते को गर समझ सका कोई इस जहाँ में ,
तो वो एकलौता एक मैं नादान हूँ ,
माना कि छुपा रखा है सीने में एक छोटा सा कोना तुम्हारे लिए ,
पर उस कोने को कोई नाम देने में मैं अनजान हूँ ।

बस “माँ” सौंपता हूँ तुझे अपना ये तन-मन सदा के लिए ,
मेरे शब्दों की चाहत और पवित्रता का सम्मान तुम्हारे लिए ,
क्योंकि आज भी धडकता है ये दिल ,”माँ” तेरी हर सांस के साथ ,
सिर्फ तुम्हारे लिए ………. हाँ,  तुम्हारे लिए ।।

6. “माँ” की छाया
सबने खोजा मेरे अवगुण को ,
एक “माँ” तूने उसे नया रूप दिया |

सबने पुकारा मुझे “नेत्रहीन “जग में ,
एक “माँ” तूने अपने नैनो का प्रकाश दिया ।

मैं  अँधा खोज रहा अपने जीवन की डगरिया को ,
तूने थाम हाथ मुझे सिखा दिया ,पार करना इस भूल-भुलैया को |

‘माँ” तेरा ह्रदय विशाल बड़ा, छुप -छुप कर किस्मत पर रोती रही,
पर मेरा अवगुण छिपाने में ,तू अपनी सुध-बुध खोती  रही ।

गर “माँ” में ऐसा दोष होता तो बेटा  बड़ा होकर कहीं चला जाता ,
लेकिन तूने जाने की कभी न सोची,क्योंकि तू कहलाती है “जननी ” और  “माता “।

आज लायक हुआ तेरा बेटा अपने पाँव पर खड़ा होकर ,
बस अब तो मुझे पड़ने दे अपने पाँव में ,पा  सकूँ तेरा आशीर्वाद चरण स्पर्शकर ।

माँगू यही भगवान् से कि नेत्रहीन बनाये जो अगले जनम में मुझे ,
तो “माँ” की छाया देनी न भूले ,जो हर “नेत्र ” से छूले मुझे ।।

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