एक अनजाना डर मुँह बाए खड़ा …..
हर पल मुझे तिरस्कृत कर रहा ,
सोचा है क्या तुमने कभी?
क्या होगा जो तेरे पाँव के बिछ्वे को, वक़्त से पहले ही ऊँगली से जुदा होना पड़े ।
एक अनजाना डर मुँह बाए खड़ा …..
कन्खिओं से मेरी ओर देख कुटिल हँसी हँसने लगा ,
सोचा है क्या तुमने कभी?
जो तेरी पायल की झंकार को, बजने से पीछे कोई करने लगे ।
एक अनजाना डर मुँह बाए खड़ा …..
एक प्रश्नचिन्ह मेरी मुस्कुराहट पर रखने लगा ,
सोचा है क्या तुमने कभी?
जो तेरे हाथों की चूड़ी को ,तोड़ने पर मजबूर समाज करने लगे ।
एक अनजाना डर मुँह बाए खड़ा …..
मेरे भोले-भाले मन पर कठोरता के व्यंग कसने लगा ,
सोचा है क्या तुमने कभी?
जो तेरे माथे की बिंदिया को, वक़्त से पहले कोई पोछने लगे ।
एक अनजाना डर मुँह बाए खड़ा …..
मुझमें व्याभिचारिता का सबक भरने लगा ,
सोचा है क्या तुमने कभी?
जो तेरे कामुक लम्हों को, कोई और पूरा करने लगे ।
एक अनजाना डर मुँह बाए खड़ा …..
मेरी अंतरात्मा को पूरे जोर से झकझोरने लगा ,
सोचा है क्या तुमने कभी?
जो इस माँग में भरे लाल सिन्दूर का रंग ,मातम के खून में बदलने लगे ।
सुनकर मैं सिहर उठी ……
अपने अनचाहे भविष्य की टीस को सूनी आँखों से पढने लगी ,
जो कहना चाहता था…… वो अनजाना डर ,
उसके हर शब्द में ,अपने लिए की हुई हर एक “फ़िक्र ” को समझने लगी ।
“नशा ” करता है पुरुष रातों में ….
तकलीफ होती है उसके परिवार को ,जब साथ छूट जाए बीच राहों में ,
वक़्त उस वक़्त बहुत ज़ालिम सा हो जाता है ,
जब एक तरफ समाज और दूसरी तरफ परिवार का भविष्य नज़र आता है ।
स्त्री उस वक़्त भँवर में ऐसे गोते लगाती है ,
जहाँ पानी तो होता है पर नाव न नज़र आती है ,
वैधव्य की चिंता उसके कोमल मन को झकझोर जाती है ,
परन्तु पछतावा ही रह जाता है ,और चिड़िया खेत चुग जाती है ।
वही अनजाना डर मुझे यूँ सचेत करने आया था ,
कि सँभल जाओ पहले ही ……..ये सन्देश देने आया था ,
रोक लो उन्हें “नशे” से गर शक्ति है तुम्हारे सीने में ,
वरना निरर्थक ये साथ है , कोई मज़ा नहीं ऐसे जीने में ।
अचानक मैं भाग उठी इतने जोर से …. मानो समुद्र में तूफ़ान आया हो ,
उस अनजाने डर को भगाने …..”नशे” से लड़ने की तलवार लाया हो ,
क़दमों में उनके गिर पड़ी …..विनती करने की लगाकर गुहार ,
मत करो “नशा”….मत करो “नशा “…..सिर्फ एक बार सोच कर देखो ….मेरा उजड़ा हुआ संसार ।।
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