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Monday, December 30, 2019

जल का कमाल

https://www.youtube.com/watch?v=9UOepAe8a64&t=52s


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मुझे थी पानी बहाने की आदत ,
मैं रोज़ पानी बहाती थी ,
अपनी रसोई का सारा गुस्सा ,
मैं पानी पर उतारती थी |

नल चला कर बर्तन धोना ,
ये मेरी फितरत थी ,
वाशबेसिन के चलते नल से ,
घंटों तक दाँत साफ़ करती थी |

मज़ा आता था मुझे ,
यूँ करने में बर्बाद ये पानी ,
एक यही तो है जो मिला मुफ्त मुझे ,
फिर क्यों ना करूँ मैं मनमानी ?

मगर एक दिन कुछ ऐसा हुआ ,
जिसने मेरी सोच को बदल दिया ,
पाइपलाइन के फटने से ,
पानी ने अपना मुँह मोड़ लिया |

तीन दिन की वो परेशानी ,
जब मोहताज़ थी मैं बिना पानी ,
हर बोतल और कटोरी में पानी भरने लगी ,
अपनी बेफ़कूफी पर खुद हँसने लगी |

कैसा करती थी मैं बर्बाद तुझे ?
आज उसी बर्बादी का ये अंजाम हुआ ,
पानी की बहती धारा को पाने के लिए ,
मेरा तन और मन सब विचलित हुआ |

उस दिन के बाद से मैंने खाई कसम ,
ना होने दूँगी तुझे बर्बाद कभी ,
अब भी जब कहीं कोई नल बेकार चलता है ,
मैं दौड़ कर बंद करती हूँ सभी |

इसलिए मेरे दोस्तों बाँध लो तुम भी ये गाँठ ,
कि पानी को बेकार होने ना देंगे .... जब तक रहेगी ये साँस ,
पानी है अनमोल रतन  .... रखो इसे सँभाल ,
क्योंकि हमारे ज़िंदा रहने में यही तो करता है कमाल ||




ज़माने की फिकर

Excerpt:  This hindi poem highlights the feelings of a poetess when she was in a dilemma that whether she walks hand to hand with this society or not . And at last she decided to go with it.


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कभी – कभी मैं सोचा करती हूँ ,
कि ज़माने पर मैं इतनी मोहताज क्यूँ ?
खुद चलने की मुझमे हिम्मत गर नहीं ,
तो ज़माना मेरे साथ चले , ऐसी ख्वाईश क्यूँ ?
खुद आगे बढ़ने से ही तो मिलती हैं मंजिले ,
खुद आगे चलने से ही तो पूरी होती हैं हसरते ,
फिर क्यूँ ना मैं खुद चलके , खुद को आबाद करूँ ?
फिर क्यूँ ना मैं आगे बढ़ , अपनी मंजिलों को तय करूँ ?
एक दिन तो ऐसा ज़रूर आयेगा ,
जब ये ज़माना मुझ पर तरस खायेगा ,
मैं बढ़ती रहूँगी आगे तब भी बेधड़क ,
क्योंकि मिलेगी मुझे तब नई एक सड़क |
उस सड़क पर चलके मैं इतराऊँगी ,
अपनी कामयाबी के नए गीत गुनगुनाऊँगी ,
तब होगा मेरा इस ज़माने से फिर एक संघर्श ,
जब ज़माने और मुझमे ना होगा कोई स्पर्श |
मैने ज़माने को तब पीछे छोड़ दिया होगा ,
और ज़माने से नाता सब तोड़ दिया होगा ,
वो फिर भी मेरे करीब आयेगा ,
मुझे अपनी मीठी – मीठी बातों में फुसलायेगा |
वो कहेगा मुझे फिर से अपने संग चलने को ,
वो कहेगा मुझे फिर से अपने संग मरने को ,
मैं सोच में फिर से तब पड़ जाऊँगी ,
कभी खुद पे , कभी ज़माने पे तरस खाऊँगी |
ज़माने से आगे बड़ना तब मुझे गंवारा ना होगा ,
मेरी धमनियों में बहते लहू का तब कोई सहारा ना होगा ,
मैं फिर से उस सहारे को पकड़ लाऊँगी ,
और ज़माने के संग चलके मुसकाऊँगी |
अब ज़माने से होगा मेरा दोस्ताना ,
मैं आगे भी बढ़ी गर तो साथ उसने है निभाना ,
इसी साथ को पाने की खातिर मैं अब तक इतना दौडी थी ,
खुद आगे चलने की ख्वाईश में कहीं ज़माने को दोष देती थी |
अब हर दोष को मैने गले लगाया ,
ज़माने के साथ चलने में ही एक संतोष है पाया ,
क्योंकि ना मैं और ना ही ये ज़माना होंगे कभी इधर -उधर ,
फिर क्यूँ बेवजह मैं भी करूँ इस ज़माने की फिकर ||


शारीरिक भूख

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हम दोनो की जरूरत थी ,
कल रात  ....
ये शारीरिक भूख |

तुम दे सकते हो ,
इसे प्यार का दूसरा नाम ,
शायद ऐसे ये ना हो बदनाम  |
 
इसे हमने-तुमने नहीं बनाया ,
पर फिर भी ये तब काम आया  ,
जब व्याकुल थे दो बदन |

जब रोक पाना था खुद को ,
नामुमकिन सा ....
तब मिलन हुआ हम दोनो का |

इसे क्यूँ दें फिर व्याभिचार का नाम  ,
ऐसे तो ये हो जायेगा बदनाम ,
ये केवल एक भूख थी |

जो लगी .....
फिर मिटी ,
फिर तृप्त हुए दो बदन  |

बस फर्क सिर्फ इतना था  ,
कि ये ज़िसमानी थी  ,
हाँ .... एक शारीरिक भूख  ||


Tuesday, October 23, 2018

सज़ा

"दोस्ती" की सज़ा  ..... ऐसी भी होती है क्या ?
कि दिल को बस यही लगे हर पल  ...... कि कहीं वो मुझे "धोखा" ना दे जाए || 

तीर चला कर अपनी जवानी का

तीर चला कर अपनी जवानी का  ...... वो कहते हैं मुझे जाने दो ,
गर इतनी ही सर्दी थी जज़्बातों में  ..... तो हर जज़्बात को पहले साँसों की गर्मी से महकाने दो || 

वो चुराने लगा

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वो चुराने लगा  .........  मेरे लबों की लाली ,
मैं लाली बचाते-बचाते  ...  बदनाम हो गई | 

वो चुराने लगा  ...... मेरे जिस्म की खुशबू ,
मैं खुशबू संभालते-संभालते  .... सरे ~ ए ~ आम हो गई |  

वो पाना चाहता था  ..... जिस भूख को मुझमे ,
मैं उस भूख की राह को पाकर  ........ गुलिस्ताँ हो गई | 

वो एक बार कहता तो सही  ..... अपनी दिल ~ ए ~ आरज़ू को ,
मैं उस आरज़ू की शाख पर  .....  फना हो गई | 

गम ~ ए ~ मंज़र इतना ही सही  ....... उसकी चाहत के आगे ,
कि "काश वो मिला होता पहले" , तो ये जिस्म और जान उसकी अदब में  ...... कब की हवा बन गई || 

वो समझा ही नहीं


वो समझा ही नहीं  ...... मेरी फ़रेब ~ ए ~ नज़र की दास्ताँ ,
मैं शबाब ~ ए ~ मस्ती लुटाने की , खबर देने चली थी  ...... उसे भरे बाज़ार में ||